संत कबीर दास जी के 19 प्रसिद्ध दोहे-माया मरी न मन मरा जैसे- 19 kabir ke dohe हिंदी में अर्थ सहित

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संत कबीर दास जी के 19 प्रसिद्ध दोहे संत कबीर दास जी के 19 प्रसिद्ध दोहे-माया मरी न मन मरा जैसे- kabir ke dohe हिंदी में अर्थ सहित

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।

आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मायाधन और मनुष्य का मन कभी नहीं मरा, मनुष्य मरता है शरीर बदलता है लेकिन मनुष्य की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।

kabir ke dohe

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आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर ।

इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो इस संसार में आया है उसे एक दिन अवश्य जाना है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।

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ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय ।

सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन यदि कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में विष भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।

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रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।

हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि रात को सोते हुए गँवा दिया और दिन खाते खाते गँवा दिया। आपको जो ये अनमोल जीवन मिला है वो कोड़ियों में बदला जा रहा है।

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कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।

भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।

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 कागा का को धन हरे, कोयल का को देय ।

मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये अंतर है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।

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लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट ।

अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।

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तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि तिनके को पाँव के नीचे देखकर उसकी निंदा मत करिये क्यूंकि यदि हवा से उड़के तिनका आँखों में चला गया तो बहुत दर्द करता है। वैसे ही किसी निर्बल या निर्धन व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए।

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धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी मन को समझाते हुए कहते हैं कि हे मन! संसार का हर काम धीरे धीरे ही होता है। इसलिए सब्र करो। जैसे माली चाहे कितने भी पानी से बगीचे को सींच ले लेकिन वसंत ऋतू आने पर ही फूल खिलते हैं।

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मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख,

मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मांगना तो मृत्यु के समान है, कभी किसी से भीख मत मांगो। मांगने से भला तो मरना है।

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ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि।

मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है। मूर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।

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कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,

ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी संसार खुश था और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो संसार रोये और हम हँसे।

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पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

इस दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि पुस्तकें पढ़ पढ़ कर लोग शिक्षा तो प्राप्त कर लेते हैं लेकिन कोई ज्ञानी नहीं हो पाता। जो व्यक्ति प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ ले और वही सबसे बड़ा ज्ञानी है, वही सबसे बड़ा पंडित है।

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जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

इस दोहे का अर्थ: किसी विद्वान् व्यक्ति से उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए बल्कि ज्ञान की बात करनी चाहिए। असली मोल तो तलवार का होता है म्यान का नहीं।

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जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ

इस दोहे का अर्थ: जो लोग लगातार प्रयत्न करते हैं, परिश्रम करते हैं वह कुछ ना कुछ पाने में अवश्य सफल हो जाते हैं। जैसे कोई गोताखोर जब गहरे पानी में डुबकी लगाता है तो कुछ ना कुछ लेकर अवश्य आता है लेकिन जो लोग डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रहे हैं उनको जीवन पर्यन्त कुछ नहीं मिलता।

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दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत

इस दोहे का अर्थ: मनुष्य की फितरत कुछ ऐसी है कि दूसरों के अंदर की बुराइयों को देखकर उनके दोषों पर हँसता है, व्यंग करता है लेकिन अपने दोषों पर कभी नजर नहीं जाती जिसका ना कोई आदि है न अंत।

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तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय

इस दोहे का अर्थ: कबीरदास जी इस दोहे में बताते हैं कि छोटी से छोटी चीज़ की भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए क्यूंकि वक्त आने पर छोटी चीज़ें भी बड़े काम कर सकती हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक छोटा सा तिनका पैरों तले कुचल जाता है लेकिन आंधी चलने पर यदि वही तिनका आँखों में पड़ जाये तो बड़ा कष्ट देता है।

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अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप

इस दोहे का अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि अधिक बोलना अच्छा नहीं है और ना ही अधिक चुप रहना भी अच्छा है जैसे अधिक बारिश अच्छी नहीं होती लेकिन बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।

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कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन,

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन

इस दोहे का अर्थ: मात्र कहने और सुनने में ही सब दिन चले गये लेकिन यह मन उलझा ही है अब तक सुलझा नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि यह मन आजतक चेता नहीं है यह आज भी पहले जैसा ही है।

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दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार

इस दोहे का अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का जन्म मिलना बहुत दुर्लभ है यह शरीर बार बार नहीं मिलता जैसे पेड़ से झड़ा हुआ पत्ता जैसे पुनः पेड़ पर नहीं लग सकता।

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