कबीर के दोहे-साधु ऐसा चाहिए – पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ जैसे 25 kabirpanthi ke dohe हिंदी में अर्थ सहित

कबीर के दोहे-साधु ऐसा चाहिए – पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ जैसे 25 kabirpanthi ke dohe हिंदी में अर्थ सहित

कबीर के दोहे 25 kabirpanthi ke dohe

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि लोग बड़ी से बड़ी पढाई करते हैं लेकिन कोई पढ़कर पंडित या विद्वान नहीं बन पाता। जो मनुष्य प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ लेता है वही सबसे विद्वान् है।

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साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।

सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि एक सज्जन पुरुष में सूप जैसा गुण होना चाहिए। जैसे सूप में अनाज के दानों को अलग कर दिया जाता है वैसे ही सज्जन पुरुष को अनावश्यक बातों को छोड़कर मात्र अच्छी बातें ही ग्रहण करनी चाहिए।

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जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।

जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।

कबीर के दोहे का अर्थ: जिस मनुष्य अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो मनुष्य पशु के समान है।

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जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश ।

जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बाद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा स्वंम कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई मनुष्य ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।

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जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।

कबीर के दोहे का अर्थ: साधु से उसकी जाति मत पूछो बल्कि उनसे ज्ञान की बातें करिये, उनसे ज्ञान लीजिए। मोल करना है तो तलवार का करो म्यान को पड़ी रहने दो।

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बीर के दोहे kabirpanthi ke dohe

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए ।

यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ।

कबीर के दोहे का अर्थ: यदि आपका मन शीतल है तो संसार में कोई आपका शत्रु नहीं बन सकता

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ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।

प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना मनुष्य पशु के समान है और भक्ति करने वाला मनुष्य के ह्रदय में भगवान का वास होता है।

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कबीर के दोहे kabirpanthi ke dohe

तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार ।

सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।

कबीर के दोहे का अर्थ: तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से  पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं

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तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय ।

सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि लोग प्रतिदिन अपने शरीर को साफ़ करते हैं लेकिन मन को कोई साफ़ नहीं करता। जो मनुष्य अपने मन को भी साफ़ करता है वही सच्चा मनुष्य कहलाने लायक है।

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प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए ।

राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और नाही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीशक्रोध, काम, इच्छा, भय त्यागना होगा।

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जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ।

ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं।

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पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।

अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।

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कबीर के दोहे kabirpanthi ke dohe

 जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।

सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार में था, तब मेरे ह्रदय में हरी ईश्वर का वास नहीं था और अब मेरे ह्रदय में हरी ईश्वर का वास है तो मैं अहंकार नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार समाप्त हो गया है।

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नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।

मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन यदि मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या लाभ, जैसे मछली सर्वदा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज दुर्गन्ध आती है।

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प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय ।

लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।

कबीर के दोहे का अर्थ: जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची मनुष्य अपना शीश काम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।

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कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर ।

जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो मनुष्य दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे मनुष्य होने से क्या लाभ।

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कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। यदि ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन यदि गुरु आपसे रूठ गया तो संसार में कहीं आपका सहारा नहीं है।

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कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।

एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों सर्वदा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर सर्वदा के लिए सो जायेगा।

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नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।

कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिमबर्फ भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।

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राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।

जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ।

कबीर के दोहे का अर्थ: जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े क्यूंकि जो आनंद संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं होगा।

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शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान ।

तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।

कबीर के दोहे का अर्थ: शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये संसार के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।

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साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये ।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि हे प्रभु मुझे अधिक धन और संपत्ति नहीं चाहिए, मुझे मात्र इतना चाहिए जिसमें मेरा परिवार अच्छे से खा सके। मैं भी भूखा ना रहूं और मेरे घर से कोई भूखा ना जाये।

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माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए ।

हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे पश्चाताप होता है। ठीक वैसे ही मनुष्य भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में पश्चाताप होता है।

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ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार ।

हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार तो माटी का है, आपको ज्ञान पाने का प्रयास करना चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।

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कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार ।

साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ।

कबीर के दोहे का अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कड़वे बोल बोलना सबसे बुरा काम है, कड़वे बोल से किसी बात का समाधान नहीं होता। वहीँ सज्जन विचार और बोल अमृत के समान हैं।

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